आरएसएस की पहल कितनी सार्थक?
अजीत द्विवेदी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ कुछ ऐतिहासिक गलतियों को सुधार रहा है, अपने बारे में बनी ऐतिहासिक धारणाओं को बदलने का प्रयास कर रहा है या कोई ऐतिहासिक भूल कर रहा है? पिछले कुछ दिनों में सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में कुछ ऐसा घटित हुआ है, जिससे ये सवाल उठे हैं। सबसे पहले आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत देश के पांच मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिले, जिसमें आपसी गिले-शिकवे हुए और उन्हें दूर करने के प्रयास की सहमति बनी। इसके बाद संघ प्रमुख अपने कई पदाधिकारियों के साथ देश भर के इमामों के संगठन के प्रमुख मौलाना उमर इलियासी से मिलने एक मस्जिद में गए। उसके बाद विजयादशमी की सालाना रैली में पर्वतारोही संतोष यादव को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया। फिर संघ प्रमुख ने जाति और वर्ण को समाप्त करने का बयान दिया और जब दिल्ली में हजारों हिंदुओं के बौद्ध धर्म स्वीकार करने का विवाद हुआ तो उसके तुरंत बाद महर्षि वाल्मिकी जयंती के मौके पर मोहन भागवत ने कहा कि उनका संगठन यानी आरएसएस हर उस व्यक्ति का पूरा समर्थन करेगा, जो महर्षि वाल्मिकी की पूजा करता है क्योंकि उनके बगैर दुनिया भगवान राम को नहीं जान पाती।
ये सारी घटनाएं पिछले एक-डेढ़ महीने में हुई हैं और इनमें एक तारतम्य दिखाई दे रहा है। यह संभव नहीं है कि ऐसा घटनाक्रम बिना किसी योजना के हुआ हो। संघ प्रमुख का मुसलमानों के प्रति सद्भाव दिखाना। पिछड़ी जाति की एक महिला को संघ के सालाना जलसे में बुलाना। जाति व वर्ण का भेद खत्म करना और दलित समाज के लोगों को समर्थन का मैसेज देना अनायास नहीं है। यह सब सोची समझी योजना के तहत हुआ है। संघ के विचारक माने जाने वाले राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने अंग्रेजी के अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लेख लिख कर मुसलमानों के प्रति सद्भाव दिखाने के संघ प्रमुख की पहल के बौद्धिक व सांस्कृतिक पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने लिखा कि आरएसएस का लक्ष्य भारत के सभ्यतागत गौरव को पुनर्स्थापित करना है। राकेश सिन्हा ने लिखा- भागवत ने दो लक्ष्य हासिल करने के लिए संवाद की जरूरत को रेखांकित किया। प्राथमिक लक्ष्य साजिश के सिद्धांत पर आधारित इस अवधारणा को बदलने का है कि आरएसएस अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है। इसके लिए सम्भ्रांत लोगों के साथ संवाद जरूरी है। इसके पीछे दूसरा लक्ष्य यह आता है कि आम लोगों के बीच राष्ट्रवाद और हिंदू सभ्यता के बारे में सांस्कृतिक विमर्श हो।
अब सवाल है कि धर्म को लेकर, वर्ण को लेकर और जाति को लेकर के संघ प्रमुख ने जो विमर्श छेड़ा है और इस विमर्श का जो लक्ष्य बताया जा रहा है उसे हासिल करने में कितनी कामयाबी मिलेगी? ध्यान रहे इससे पहले भी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत इस तरह के छिटपुट प्रयास कर चुके हैं और उस प्रयास से हासिल कुछ नहीं हुआ, उलटे विमर्श ऐसी दिशा में बढ़ गया, जिसका बड़ा नुकसान भारतीय जनता पार्टी को उठाना पड़ा। मोहन भागवत ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आरक्षण की समीक्षा का बयान दिया था। उस समय मंडल की राजनीति के दो नेता नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक साथ मिल कर चुनाव लड़ रहे थे। दोनों नेताओं ने आरक्षण की समीक्षा के उनके बयान को आरक्षण समाप्त करने के प्रयास के तौर पर प्रचारित किया। इससे बिहार में अगड़ा बनाम पिछड़ा का चुनावी माहौल बनाने में कामयाबी मिली। हो सकता है कि इसके बगैर भी भाजपा चुनाव नहीं जीत पाती लेकिन आरक्षण से जुड़े बयान ने उसकी हार का रास्ता आसान कर दिया।
कहते हैं कि दूध का जला छांछ भी फूंक कर पीता है। संघ प्रमुख को निश्चित रूप से यह कहावत पता होगी फिर भी सात साल बाद उन्होंने धर्म के साथ साथ जाति का विमर्श शुरू किया है। इस पर शुरुआती प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक नहीं है। संघ, भाजपा के काडर में ही इसे अच्छा नहीं माना जा रहा है। तभी एक तरफ संघ प्रमुख मुसलमानों के प्रति सद्भाव दिखा कर ऐतिहासिक धारणा को बदलने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा के सांसद खुलेआम मुसलमानों के संपूर्ण बहिष्कार की अपील कर रहे हैं। एक तरफ संघ प्रमुख कह रहे हैं कि हिंदुओं को हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं तलाशना चाहिए और दूसरी ओर उसी अनुपात में मस्जिदों में शिवलिंग की तलाश तेज हो रही है, अदालतों में याचिकाएं डाली जा रही हैं। खुद संघ प्रमुख अल्पसंख्यकों की ओर इशारा करके आबादी के असंतुलन का सवाल उठा रहे हैं और जनसंख्या नियंत्रण की बात कर रहे हैं। तभी सवाल है कि ऐसे में भरोसा कैसे बढ़ेगा? यह सही है कि संघ प्रमुख की हैसियत वेटिकन के पोप की तरह नहीं है कि उनकी कही बात हिंदू समाज के लिए पत्थर की लकीर है। लेकिन कम से कम उन लोगों के लिए तो उनकी बात पत्थर की लकीर होनी चाहिए, जो संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी या अन्य हिंदू संगठनों से जुड़े हैं? अगर वे भी संघ प्रमुख की बातों के उलट आचरण करते हैं तो फिर अल्पसंख्यक समाज का भरोसा कैसे बढ़ेगा? एक तरफ अल्पसंख्यक समाज का भरोसा नहीं बन रहा है तो दूसरी ओर 80 और 20 की राजनीति के समय में अल्पसंख्यकों की बात व्यापक हिंदू समाज के गले नहीं उतर रही है।
वर्ण, जाति और लिंगभेद को लेकर दिए गए संघ प्रमुख के बयानों या उनकी ओर से की गई पहलों का भी वहीं हाल है, जो धार्मिक विमर्श का है। उन्होंने कहा कि वर्ण और जाति पुरानी अवधारणा हो गए हैं और इनको बदला जाना चाहिए। इससे ठीक पहले विजयादशमी के भाषण में उन्होंने बेरोजगारी के मसले पर एक तरह से केंद्र सरकार का बचाव करते हुए कहा कि कोई भी सरकार या निजी सेक्टर 10, 20 या 30 फीसदी से ज्यादा लोगों को नौकरी नहीं दे सकता है। बाकी लोगों को खुद ही काम करना होता है। उनके इस बयान को वर्ण और जाति वाले बयान से मिला कर देखें तो ऐसा लग रहा है कि फिर से आरक्षण की एफर्मेटिव व्यवस्था की समीक्षा या उसे बदलने की बात हो रही है। भारत में आरक्षण का आधार जाति है और अगर जाति व्यवस्था खत्म होती है तो आरक्षण अपने आप खत्म होगा। हालांकि भारत में न तो जाति खत्म होने वाली है और न जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था खत्म होगी। तभी कह सकते हैं कि संघ प्रमुख का बयान दोधारी तलवार की तरह है, जिसका फिर भाजपा को नुकसान हो सकता है।
अगर भाजपा के सामाजिक आधार को बारीकी से देखें तो साफ दिखता है कि सवर्ण समाज के अलावा दलित और आदिवासी मुख्य रूप से उसके समर्थक हैं, जिसमें पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर पिछड़ी जातियों को जोडऩे का प्रयास हो रहा है। अगर जाति व्यवस्था खत्म करने की बात पर आरक्षण की बहस आगे बढ़ती है तो भाजपा के प्रयासों को झटका लग सकता है। इसी तरह दलित विमर्श भी राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील मसला है। इसमें भी पहली बात भरोसे की हैं। संघ में कहां हैं पिछड़ी जाति के लोग या दलित समाज के लोग या महिलाएं? जब उनकी भागीदारी बढ़ाने की बात है तो शुरुआत क्यों नहीं संघ से की जाती है? यह सही है कि संघ और उससे जुड़े संगठनों की जमीनी गतिविधियों से कई पिछड़ी और हाशिए पर की जातियों को नई सामाजिक व राजनीतिक पहचान मिली। भाजपा को इसका फायदा भी मिला। लेकिन जमीनी राजनीति से इतर जाति और वर्ण का विमर्श हिंदुत्व की बुनियादी अवधारणा से खासतौर से संघ और भाजपा के हिंदुत्व की अवधारणा से मेल नहीं खाते हैं। अगर यह विरोधाभास राजनीतिक विमर्श का विषय बनता है तो भाजपा को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।