कटी हुई टहनियां कहा छांव देती है

कटी हुई टहनियां कहा छांव देती है

हद से ज्यादा उम्मीदें हमेशा घाव देती है*!!
जगदीश सिंह सम्पादक

बदलते परिवेश में देश के भीतर पश्चिमी सभ्यता की हवा सुनामी बनती जा रही है।जरा आप गौर करें! क्या सब कुछ बदला बदला नहीं लग रहा है! शाम होते ही गांवों में सियापा घरों में सन्नाटा, उल्लुओं की कर्कश आवाज के बीच सिहरन पैदा करती पछुआ हवा के साथ गुलाबी ठंडक लिहाफ में जि़न्दगी बन गई बन्धक,मगर आसमान में वही पुराने जगमग करते तारे जो सदियों पहले थे आज भी उनके है वहीं नजारे! लेकिन अब इन्सानी बस्तियों में पहले वाली बात नहीं। बीरान सुनसान रात में कहीं भी अब नहीं सुनाई देती चौकीदार की आवाज जागते रहो! कहीं नहीं सुनाई देती दरोगा जी के बुलेट की बुलन्द आवाज!,अब गांवों में रात को पुलिस की नहीं होती गश्त! चोर अपराधी भी हो गए है आश्वस्त हैं?बेखौफ अपराध कर हो जाते हैं मस्त! कार्तिक मास में आसमान पर साइबेरियन पक्षियों का पक्ति बद्ध उड़ता हुआ कारवां

जो कभी किसानों के लिए बुआई का सन्देश देता था अब कहीं नहीं दिखाई देता!दरवाजे पर खडरीच पक्षी का आगमन शुभ सन्देश देता था! जब भीषण शीतलहर चलती थी तब भी गन्ना पेराई रातभर चलता था कडाहे में उबलते गुड की सुगन्ध हवा में मिलकर मदमस्त फिज़ा का निर्माण करता था! दरवाजे दरवाजे आग कि ब्यवस्था पालतू जानवरों का सहारा होता था! गजब का नजारा रहता था! पूरी रात गांवों में हलचल रहता! मगर समय का खेल देखिए किसानी का तरीका बदल गया! लोगों का सलीका बदल गया!जीवन पद्धति दुर्गति का कारण बन गयी! भाई चारगी खत्म, आपसी मेल गांवो में होने वाली चिकई,कबड्डी लखनी का खेल! गांवों में बैल कोल्हू से निकलने वाला शुद्ध तेल! सब दिवास्वप्न हो गया!सुबह सुबह बिना घड़ी देखें भी घर का मुखिया आवाज देने लगता भोर हो गया अजान होते ही शोर हो गया! कहीं गाये रम्भाती,कहीं बछड़े चिल्लाते, दरवाजे पर बैलों के गले की घन्टिया अजीब तरह का माहौल बनाती!दरवाजे दरवाजे ढेबरी लालटेन के उजाले में पढ़ते छात्र ,भोरहरी में घर घर चक्कियों से निकलती घर्र घर्र के साथ भजन गाती गृहीणीयो की सुरीली आवाज कभी परवाज चढ़ती थी! अब तो लगता ही नहीं है गांव गांव रहा गया!भारतीय परम्परा भारतीय संस्कृति का लोप हो गया!गांवों का देश कहा जाने वाला भारत बिलासिता के बवंडर में फंस कर अपने मूल का समूल नाश कर दिया है! बाग बगीचे उजड़ गए! पशु पक्षी बिलुप्त हो ग्ए! इतिहास की बात बनकर परिवार संयुक्त हो गएआधुनिकता की चकाचौंध में डोली कहार बारात में द्वाराचार परम्परा खत्म हो गयी! शिष्टाचार से परिवार के सुसंस्कृत होने का फार्मूला बदल गया! शादी बिबाह को जन्म जन्म का बन्धन मानकर औरत को लक्ष्मी स्वरुपात का दर्जा देकर भाग्य के सहारे स्वीकार कर आजीवन निर्वाह की परम्परा अधमरा हो गई?अब तो इस लालची समाज में आज बहुओं को लाने के लिए बेटों की कीमत बताई जा रही! दहेज के लिए किसी की लाडली जिन्दा जलाई जा रही है?

परिवर्तन का दौर है साहब! जिस बेटा को दहेज के नाम पर बेच दिया वहीं बेटा बहू के आते ही महज चन्द महीनों में अपने मां बाप को दिल से निकाल कर फेंक दिया! फिर काहे का पश्चाताप, क्यों करते हो भाई बिलाप! जो बोया है वही तो काटेगा।रिश्ता तो किया नहीं! किया तिजारत! तो फिर किस बात की ढूंढते हो इज्जत ! जब औलाद को बिकने का सामान बना दिया जो खरीद्दार था माकूल कीमत देकर लिया फिर हक कैसा?उसकी दुकान है जिसको चाहे नौकर बना कर रखें या कर दे घर से बाहर !खुद के लिए तबाही की तिजारत करने वाले अपने लिए खुद बर्बादी का गड्ढा खोद रहे हैं।जब की पता है उनको जो कुछ औलाद की बिक्री में मिलेगा उसका उस पर कोई अधिकार नहीं! फिर भी ब्यापार कर रहा है स्वार्थी इन्सान!बदलता समाज में जो आज हो रहा है उसका जिम्मेदार लालची समाज ही है।अदालतो में सम्बन्ध बिच्छेद के मुकदमों की भरमार है!रिश्तों की तिजारत में इज्जत हो रही तार तार है! अब न किसी से किसी का प्यार है! न इकरार है! स्वार्थ के चलते हो रहा तकरार है्! आधुनिक समय में अच्छी शिक्षा ही मां बाप को भिक्षा मंगवा रही है! होश सम्हालते ही हास्टल में आया के सहारे जिसने बचपन गुजारा वो कैसे हो सकता है मां बाप का दुलारा!जिस तरह से प्यार दुलार से बन्चित रहकर जीवन संचित किया उसी तरह से वह भी परिवारिक रस्म पूरी होते ही बिरक्ती की राह पकड़ कर आशक्ति के वशीभूत अपनी जिन्दगी में एकाकी ब्यवस्था से दोस्ती बना लें रहा है!जिसने बचपन से आया के सहारे जिया मां बाप को भी आया ही समझ रहा है!जो बीज कोई बोएगा वहीं तो काटेगा भाई।गड्ढ़ा खोदे तुम तो कौन पाटेगा!जिसको संस्कार मिला ही नहीं वह संस्कार से कैसे रहेगा!जस करनी तस भोगहू ताता!वास्तविकता के धरातल पर संस्कार बीहीन परिवार ही आज गुनाहगार साबित हो रहे हैं! जिसने साफगोई से अपनी औलादी फसल को संस्कार के पानी से सींचकर तैयार किया वह परिवार आज भी सुख सम्बृधि की
लहलहाती फसल को काट रहे हैं!

समाज में सत्कर्म सद्भाव, सम्भाव समरसता का सन्देश देकर पुरातन परम्परा,भारतीय मूल्यों के सम्वर्धन,भारतीय संस्कृतियो से सुसज्जित समर्पण का उदाहरण बन रहा है। वक्त के साथ बदलना मजबूरी है!मगर आपने वजूद को भी संरक्षित रखना जरूरी है।

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