जंगलों की आग हिमालय में अचानक आने वाली बाढ़ को कैसे बदतर बना देती है?
जंगलों में बार-बार लगने वाली भयानक आग, वनों के सतह की मिट्टी को भारी नुकसान पहुंचाती है। ये एक कारण है जिसकी वजह से दक्षिण एशिया के पहाड़ों में फ़्लैश फ्लड्स आ रहे हैं। हिमालय में जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक दिखाई देने वाले लक्षणों में जंगलों में लगने वाली आग और अचानक आने वाली बाढ़ शामिल हैं। आप जितना सोच सकते हैं, उससे भी बड़े स्तर पर ये दो घटनाएं आपस में जुड़ी हुई हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 20 सालों के दौरान हिमालय में आकस्मिक बाढ़ आने की घटनाओं के इजाफे के पीछे एक प्रमुख वजह है जंगलों में बार-बार लगने वाली भयानक आग।
इस आलेख में हम इन संबंधों समझाते हुए यह भी बता रहे हैं कि विशेषज्ञों द्वारा इसे ‘दुष्चक्र’ क्यों कहा गया है और इसको दुरुस्त करने के लिए क्या-क्या संभावित समाधान हो सकते हैं।
हिमालय के जंगलों में आग
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के आंकड़ों के अनुसार, साल 2001 और 2021 के बीच, हिमालय में जंगलों की आग से 35,000 हेक्टेयर से अधिक के क्षेत्र में पेड़ नष्ट हो गए। (यह आंकड़ा पूरे नेपाल व भूटान तथा भारत व पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्रों में जंगलों की आग के बारे में भी बताता है।) इन आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 2011 से 2020 दौरान जंगलों में आग लगने की वजह से जलने वाले आंशिक क्षेत्र में, पिछले दशक की तुलना में 1.4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2011 से 2020 के दौरान यह क्षेत्र 7,300,000 हेक्टेयर हो गया है जबकि इससे पिछले दशक के दौरान यह आंकड़ा 7,200,000 हेक्टेयर का था।
हालांकि विस्तृत आंकड़े मिलना बहुत मुश्किल है, लेकिन ऐसे स्पष्ट संकेत हैं कि हाल के वर्षों के दौरान हिमालय के कुछ हिस्सों में जंगलों में लगने वाली आग की घटनाएं बढ़ी हैं। नेपाल में अधिकारियों का कहना है कि 2012 से अगर देखें तो पाएंगे नवंबर 2020 से मार्च 2021 का समय आग लगने की घटनाओं के लिहाज से सबसे खराब सीज़न था। इसी तरह से पाकिस्तानी अधिकारियों ने बताया कि उत्तरी पाकिस्तान के क्षेत्रों में पिछले साल जिस तरह से आग लगने की घटनाओं की संख्या सामने आई, उससे पहले कभी भी ऐसा देखा-सुना नहीं गया।
दिसंबर 2021 और मई 2022 के बीच फॉरेस्ट फायर अलर्ट। हिमालय क्षेत्र में आग लगने की घटनाओं का सीज़न आमतौर पर नवंबर से जून तक चलता है। इनमें सबसे ज़्यादा मामले मार्च और अप्रैल में सामने आते हैं। (स्रोत: ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच)
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के रिसर्च एनालिस्ट जेम्स मैकार्थी कहते हैं, “वैश्विक स्तर पर हमने जो देखा है, वह यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म और सूखा वातावरण, जंगलों को इस तरह की आग के प्रति अधिक नाज़ुक बना सकती हैं। चूंकि आग पश्चिमी हिमालय के ऊपरी ऊंचाई में ज्यादा फैलती हैं, ऐसे में उस क्षेत्र में जंगलों में लगने वाली आग ज़्यादा फैली हुई हो सकती है। कुछ आंकड़ों से पता चलता है कि यह स्थिति पहले से ही है।”
विशेषज्ञों का कहना है कि जंगलों में आग लगने की बहुत सी घटनाओं के पीछे एक बड़े कारणों में जलवायु परिवर्तन और वनों से संबंधित शासन-प्रशासन है।
गंगा नदी और हिमालय की रक्षा और संरक्षण के लिए काम करने वाले गंगा आह्वान आंदोलन के संयोजक हेमंत ध्यानी कहते हैं कि सबसे बड़ा कारक बारिश के पैटर्न में बदलाव है। वह बताते हैं, “सर्दियों के दौरान वर्षा कम हो गई है। मिट्टी सूख रही है। जो आग पहले सिर्फ एक हेक्टेयर में फैलती थी वह अब 5-10 हेक्टेयर में फैल रही है, क्योंकि मिट्टी में नमी नहीं है जिससे इसे फैलने से रोका जा सके।”
जो आग पहले एक हेक्टेयर में फैलती थी, वही अब 5-10 हेक्टेयर में फैल रही है।
हेमंत ध्यानी, गंगा आह्वान आंदोलन
हिमालय में किसानों को तकनीकी सहायता प्रदान करने वाले एक एनजीओ, हिमालयन एनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि बार-बार आने वाली हीटवेव्स भी इसके लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार हैं।
वह कहते हैं कि हीटवेव्स, न केवल एक गर्म और सूखा वातावरण बनाकर, जंगलों में आग लगने की आशंका को बढ़ा देती हैं, बल्कि पौधों की पत्तियों के अधिक झड़ने का कारण भी बनती हैं। इससे एक तरह से आग के लिए अधिक चारा उपलब्ध हो जाता है और उनकी तीव्रता बढ़ जाती है।
उत्तराखंड के देहरादून में एक एनजीओ, पीपल्ज़ साइंस इंस्टीट्यूट के फाउंडिंग डायरेक्टर रवि चोपड़ा के अनुसार, खराब वन प्रशासन ने और भी बड़ी भूमिका निभाई है। उनका कहना है कि वन पंचायत प्रणाली के धीरे-धीरे खत्म होने का हवाला देते हुए स्थानीय समुदाय जंगलों से तेजी से दूर होते जा रहे हैं।
भारत में यह व्यवस्था 20वीं सदी से शुरू हुई। इसमें ग्राम वन परिषदों के पास अपने-अपने गांवों के आसपास के वन क्षेत्र के शासन-प्रशासन का अधिकार रहा। साथ ही, स्थानीय समुदायों को उनके संसाधनों को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया। हालांकि, पिछले 100 वर्षों में कई कानूनी बदलावों ने इस व्यवस्था को कमजोर कर दिया है और वन विभाग के अधिकारियों को निर्णय लेने की शक्ति सौंप दी है।
चोपड़ा कहते हैं, “आजकल, जब भी जंगल में आग लगती है, तो ग्रामीणों को लगता है कि इसे नियंत्रण में लाने का काम सरकार का है … उन्हें जंगलों से कोई स्वामित्व या अपनेपन की भावना महसूस नहीं होती है। आग बुझाने के लिए पानी की बाल्टियों के साथ भागते ग्रामीणों का वह पुराना दृश्य अब गायब है।”
फ़्लैश फ्लड्स की घटनाएं बढ़ रही हैं और बेहद नुकसान पहुंचा रही हैं
अंतरराष्ट्रीय आपदाओं का एक डेटाबेस EM-DAT के अनुसार, भारतीय हिमालय क्षेत्र ने साल 1968 के बाद से फ़्लैश फ्लड यानी आकस्मिक बाढ़ वाली 17 बड़ी त्रासदियों को झेला है। इनमें से 13 तो साल 2000 के बाद आई हैं। भारतीय हिमालय क्षेत्र में 2000 के बाद से आकस्मिक बाढ़ के कारण 2,000 से अधिक लोग मारे गए हैं और हजारों अन्य घायल हुए हैं।
पाकिस्तान का उत्तरी प्रांत खैबर पख्तूनख्वा अक्सर बाढ़ की चपेट में रहता है। पाकिस्तान ने 2022 में, एक दशक में अपने यहां की सबसे भयानक बाढ़ की पीड़ा झेली। खैबर पख्तूनख्वा में अचानक आई बाढ़ ने 185 लोगों की जान ले ली। इससे पिछले साल सूबे में आई बाढ़ में 20 लोगों की मौत हुई थी। वहीं 2020 में बाढ़ के कारण 46 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और खराब तरीके से नियोजित विकास परियोजनाएं दो महत्वपूर्ण कारक हैं जो हिमालय में आकस्मिक बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता (फ्रीक्वेंसी एंड इंटेंसिटी) में वृद्धि कर रही हैं। एक एनजीओ वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के प्रमुख समीर कुमार सिन्हा कहते हैं कि भारतीय हिमालय में, सर्दियों की बारिश कम हो गई है, जबकि बादल फटने और अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बहुत बढ़ गई हैं।
सिन्हा कहते हैं, ”पहले जितनी बारिश पूरे एक महीने में होती थी, अब वह 10 दिनों में हो रही है।”
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली में हाइड्रोसेंस लैब द्वारा संकलित और द् थर्ड पोल के साथ साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2001 और 2016 के बीच, भारतीय हिमालय में बादल फटने की 17 घटनाएं हुईं, जिससे 7,000 से अधिक मौतें हुईं। इसके विपरीत, 1970 से 2000 तक के तीन दशक के दौरान बादल फटने की केवल 13 घटनाएं और 901 मौतें हुईं।
लेकिन द् थर्ड पोल से बात करने वाले विशेषज्ञों ने कहा कि हिमालय में आकस्मिक बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि के पीछे एक और घटना है: जंगलों की आग।
मिट्टी, आग और बाढ़
एक हरे-भरे जंगल में, जंगल की सतह यानी फ़ॉरेस्ट फ्लोर वनस्पति और मृत पौधों के अंशों से ढका होता है। कीड़े जैसे जानवर मिट्टी की ऊपरी परत को ऑक्सीजन देते हैं क्योंकि वे इसके माध्यम से बिल बनाते हैं, इसे पारगम्य बनाते हैं और पानी को सोखने में सक्षम बनाते हैं। सिन्हा कहते हैं, “बादल फटने और अत्यधिक बारिश की घटनाओं के दौरान, जंगल की मिट्टी पर मौजूद बायोमास स्पंज के रूप में काम करती है और पानी को सोख लेती है। इस तरह पानी नीचे की ओर बहने के बजाय जमीन में रिसता है।”
तेज हवा या भारी बारिश होने पर पौधों की जड़ें और जैविक पदार्थ भी मिट्टी को एक साथ बांधे रखते हैं।
जंगल में आग लगने से पहले और बाद की मिट्टी। इससे यह पता चलता है कि कैसे एक हरे-भरे जंगल की सतह पानी को सोखने में सक्षम होता है, जबकि आग लगने के बाद की मिट्टी एक ठोस परत बना सकती है।
यह सभी बायोमास उच्च तीव्रता वाली जंगलों की आग के दौरान नष्ट हो जाते हैं। चोपड़ा कहते हैं, “जब भी जंगल में आग लगती है तो यह मिट्टी की ऊपरी परत को नष्ट कर देती है, जो पोषक तत्वों से भरी होती है और आमतौर पर इसको बनने में 200-300 साल लगते हैं।”
आग का मिट्टी पर सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि वे इसे कम पारगम्य बना देती हैं। सिन्हा बताते हैं कि जंगलों में लगने वाली एक तीव्र आग मिट्टी की ऊपरी परत को जला देती है, “जो संरचना को बदल देती है और मिट्टी की सरंध्रता (किसी ठोस पदार्थ, जैसे कि चट्टान या मिट्टी, के कणों के बीच की खाली जगह) को कम करती है”।
इस बारे में विस्तार से बताते हुए सिन्हा कहते हैं कि मिट्टी के कण आपस में अधिक बारीकी से और सघन रूप से बंधते हैं जिससे मिट्टी की ऊपरी परत जल रोधी बन जाती है। यह स्थिति पानी के नीचे जाने में दिक्कत पैदा करती है। इससे कटाव जैसे हालात को बढ़ावा मिलता है। नतीजतन, मिट्टी उतना पानी नहीं सोख पाती है जितना वह पहले सोख सकती थी।
गर्मी, कीड़ों जैसे जानवरों को भी मार देती है, जिसका मतलब यह हुआ कि इस बदलाव को जल्दी से रिवर्स नहीं किया जा सकता है।
मिट्टी की ऊपरी परत बनने में आमतौर पर 200-300 साल लगते हैं
रवि चोपड़ा, पीपल्ज़ साइंस इंस्टीट्यूट
सिन्हा कहते हैं कि इसके बजाय, हाल ही में आग की चपेट में आई पहाड़ी की ढलान पर गिरने वाली बारिश “सतह के साथ और नदी में नीचे की ओर” बहती है। यह पानी उस ऊपरी मिट्टी को भी बहा ले जाता है, जो जंगल की आग के कारण ढीली हो जाती है। सिन्हा ने यह भी कहा कि [आग लगने के बाद] मिट्टी को एक साथ जोड़े रखने के लिए कोई वनस्पति मौजूद नहीं होने के कारण बादल फटने जैसे हादसों के दौरान यह कटाव जैसी स्थितियों के लिहाज से नाजुक हो जाता है।
चोपड़ा कहते हैं कि अतिरिक्त पानी और मलबे का यह मिश्रण नदियों में बहता है, इससे नदियों के किनारों की ऊंचाई बढ़ती है। नदियों के ओवरफ्लो के कारण नदियों के किनारों की मिट्टी का कटाव होता है और आसपास के इलाकों में अचानक बाढ़ आ जाती है।
वहीं, आग लगने और बादल फटने की घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि मिट्टी को ठीक होने के लिए जरूरी समय नहीं मिल पाता है, जिससे यह चक्र बना रहता है।
इस चक्र को तोड़ने के लिए क्या किया जा सकता है?
अगस्त 2022 में, भारतीय शोधकर्ताओं के एक समूह ने दून डिक्लेरेशन ऑन फॉरेस्ट फायर्स प्रकाशित की। इसमें तीन मुख्य सिफारिशें शामिल हैं:
- जंगलों की आग के लिए तैयारियों और प्रतिक्रिया में सुधार (उदाहरण के लिए, फॉरेस्ट फायर एक्शन प्लान में सभी हितधारकों की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया जाना; वन विभागों को फंडिंग और वन रक्षकों व अन्य फ्रंटलाइन ऑफिशियल्स के लिए उपकरण उपलब्ध कराना; जंगलों में लगने वाली आग की घटनाओं को कम करने और ऐसे हालात से निपटने के लिए समर्पित युवाओं के समूह बनाना);
- भारत के नैशनल डिज़ास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) के तहत एक समर्पित फॉरेस्ट फायर विंग बनाना जो आधुनिक अग्निशमन तकनीकों का उपयोग करे और वन रक्षकों के सहयोग से काम करे;
- नीतियां बनाने वालों की मदद के लिए जंगलों में लगने वाली आग के कारणों और प्रभावों पर आगे के शोध।
अन्य व्यावहारिक उपाय समस्या से निपटने में मदद कर सकते हैं। हेमंत ध्यानी कहते हैं कि आग और बाढ़ के दुष्चक्र को तोड़ने का सबसे अच्छा समाधान एक जमीनी स्तर का सामाजिक आंदोलन होगा, जो स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाता है। उनका कहना है कि पुरानी वन पंचायत प्रणाली को बहाल करने से ग्रामीणों में जिम्मेदारी और अपनेपन की भावना विकसित होगी, जिससे उन्हें आग लगने की स्थिति में जंगलों की रक्षा करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
ध्यानी का सुझाव है कि एक अन्य संभावित पहल पाइन नीडल बायोगैस संयंत्रों की स्थापना है। ध्यानी कहते हैं कि चीड़ नीडल्स हिमालय में जंगलों की आग के सबसे बड़े उत्प्रेरकों में से एक हैं। ग्रामीणों को उन्हें इकट्ठा करने के लिए कहा जाना चाहिए, और सरकार को उन्हें 5-6 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से खरीदना चाहिए। इससे न केवल जंगलों में लगने वाली आग की संख्या और तीव्रता में कमी आएगी बल्कि लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
एक भूटानी वन वैज्ञानिक,फुंतशो नामग्याल, हिमालय में जंगलों की आग को फैलने से रोकने के लिए फॉरेस्ट-थिनिंग प्रोग्राम की वकालत करते हैं। यह बताते हुए कि भूटान का लगभग 84 फीसदी भाग वनों से आच्छादित है, नामग्याल कहते हैं कि इन वनों में बहुत ज्यादा पेड़ हैं, इसलिए ये जंगलों में लगने वाली विनाशकारी आग के प्रति नाजुक हैं। फॉरेस्ट थिनिंग और नियंत्रित तरीके से जलाने के तरीकों से प्रभाव और खतरे को कम किया जा सकता है। नामग्याल ने भूटानी समाचार पत्र कुएनसेल में लिखते हुए ये बातें कही हैं।
शोधकर्ताओं ने जंगलों में पशुओं की चराई को प्रोत्साहित करने का भी सुझाव दिया है क्योंकि यह “आग लगने में मददगार संभावित ईंधन को खत्म करता है और जंगल में रास्ता बनाता है जिसे आग बुझाने के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।”
वहीं, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर ने द् थर्ड पोल को बताया कि अचानक आने वाली बाढ़ की आवृत्ति और गंभीरता को कम करने के लिए हिमालय में बुनियादी ढांचे के विकास में बदलाव की आवश्यकता है। वह कहते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों, सुरंगों, जलविद्युत संयंत्रों और अन्य परियोजनाओं के निर्माण से मिट्टी का कटाव होता है और मलबे को पहाड़ियों पर छोड़ दिया जाता है।
ठक्कर कहते हैं कि जंगलों की आग और बाढ़ की समस्याओं पर व्यापक रूप से ध्यान देने के लिए, अधिक स्ट्रक्चरल टॉप-डाउन बदलावों की जरूरत है। और ये बदलाव सरकारी स्तर पर होने चाहिए। मूल रूप से जरूरी यह है कि वनों के शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों को बदला जाए।
इस आलेख में नैटली टेलर द्वारा एडिशनल रिपोर्टिंग और रिसर्च शामिल है।
साभार- thethirdpol.net