जंगलों को बचाए और बढ़ाए बिना भारत की जलवायु योजना कामयाब नहीं हो सकती
भारत के जलवायु लक्ष्य जंगलों पर निर्भर है। दरअसल, जंगल ही कार्बन अवशोषित करके इन लक्ष्यों को हासिल करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन आंकड़ों को लेकर संदिग्ध स्थिति, जंगलों की कटाई और एक महत्वाकांक्षा की कमी उनकी इस क्षमता को कमज़ोर कर रही है।
नम्रता कब्रा, सान्या सरोहा
अगस्त 2022 में भारत ने अपनी अपडेटेड एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) के तहत बढ़ी हुई दो जलवायु प्रतिज्ञाओं की घोषणा की थी। राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन) में प्रत्येक देश पेरिस जलवायु समझौते के तहत अपने-अपने कमिटमेंट्स यानी वचनबद्धता को पेश करते हैं। नए एनडीसी में, भारत ने 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता को 45 फीसदी तक कम करने की बात कही है। इसके अलावा, भारत ने 2030 तक गैर-जीवाश्म वाले ईंधन पर आधारित स्रोतों से अपनी बिजली का 50 फीसदी हिस्सा प्राप्त करने का भी संकल्प लिया है।
इससे पहले, 2015 की भारत की एनडीसी में ये आंकड़े क्रमशः 33-35 फीसदी और 40 फीसदी थे। ये अपडेटेड टार्गेट्स 2021 ग्लासगो जलवायु शिखर सम्मेलन, कॉप 26 के बाद आए। कॉप 26 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि भारत 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन तक पहुंच जाएगा।
लेकिन 2015 के दस्तावेज में निर्धारित तीसरे लक्ष्य के बारे में 2022 के इस अपडेट ने कुछ भी नया नहीं कहा है। दरअसल, “2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाना” तीसरा लक्ष्य तय किया गया था।
इसके अलावा, भारत ने ग्लासगो लीडर्स डेक्लरेशन ऑन फॉरेस्ट्स एंड लैंड यूज़ पर भी हस्ताक्षर नहीं किए जिसमें विश्व के नेताओं ने “2030 तक जंगलों के नुकसान और भूमि के खराब होने की स्थितियों को रोकने और इनको दोबारा ठीक स्थितियों में वापस लाने” के लिए प्रतिबद्धता जाहिर की है।
रिसर्च से पता चलता है कि पेड़ों के रूप में स्थलीय कार्बन सिंक, वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का एक कम लागत वाला तरीका है। कार्बन डाइऑक्साइड मुख्य ग्रीन हाउस गैस है जो जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है। जंगल, मैंग्रोव, वेटलैंड, पीटलैंड और घास के मैदान, ये सभी मज़बूत कार्बन सिंक हैं जो वातावरण से भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकते हैं।
इसलिए, इन प्राकृतिक कार्बन सिंक को बढ़ाना, भारत के ‘नेट ज़ीरो’ लक्ष्य को आगे बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए एक स्पष्ट और किफायती विकल्प लगता है। साथ ही, इससे ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा मिल सकता है, वनों पर निर्भर समुदायों के अधिकारों की रक्षा हो सकती है तथा मिट्टी, हवा व पानी की गुणवत्ता में सुधार भी हो सकता है।
फॉरेस्ट कवर का लक्ष्य हासिल करने से भारत अभी कोसों दूर
हकीकत यह है कि भारत न केवल फॉरेस्ट कवर के अपने लक्ष्य को बढ़ाने में विफल रहा है, बल्कि यह 2015 में निर्धारित किए गए लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते पर भी नहीं है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार, 2002 से 2021 के बीच, भारत ने 371,000 हेक्टेयर प्राथमिक वन आवरण (फॉरेस्ट कवर) और 20.7 लाख हेक्टेयर वृक्ष आवरण (ट्री कवर) खो दिए।
भारत की राष्ट्रीय वन नीति, 1988 ने देश के भौगोलिक क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों और पेड़ों से आच्छादित यानी कवर करने का एक लक्ष्य निर्धारित किया था। यह आंकड़ा अब लगभग 24 फीसदी है। इतना ही नहीं, आधिकारिक तौर पर वन के रूप में वर्गीकृत क्षेत्र में एक बड़ा हिस्सा, दरअसल ट्री कवर के कम होने के साथ-साथ नष्ट ही हुआ है।
अति सघन वन मध्यम सघन वन कुल वन आच्छादन
2015 85,904 315,374 701,673
2017 98,158 308,318 708,273
2019 99, 278 308,472 712,249
2021 99,779 306,890 713,789
स्रोत: इंडिया स्टेट्स ऑफ फॉरेस्ट्स रिपोर्ट
इस संदर्भ में, भारत के कार्बन सिंक को बढ़ाने के लिए अधिक पेड़ लगाने के लक्ष्य पर काफ़ी बहस हो चुकी है और इसकी व्यवहार्यता व वैज्ञानिक आधार पर भी सवाल उठाया गया है। यह मुख्य रूप से वन आवरण के लिए आधारभूत वर्ष और गणना पद्धति को लेकर स्पष्टता की कमी से संबंधित है। भले ही हम इन बहसों को एक तरफ रख दें और लक्ष्य की दिशा में ही प्रगति का मूल्यांकन करें, तो भी परिणाम संतोषजनक नहीं है।
यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज को 2021 में प्रस्तुत भारत की तीसरी द्विवार्षिक अपडेट रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत ने 2015-20 की अवधि में 142,684 हेक्टेयर के अपने लक्ष्य के मुकाबले केवल 112,422 हेक्टेयर में ही पेड़ लगाए और वन भूमि में इजाफा किया।
भारत के वास्तविक फ़ॉरेस्ट कवर पर सवाल
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में वन आवरण यानी फ़ॉरेस्ट कवर बढ़ रहा है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2021 का कहना है कि देश के भौगोलिक क्षेत्र का वन आवरण 21.71 फीसदी है जो 2019 में 21.67 फीसदी था। वहीं, कुल वृक्ष आवरण जो 2019 में 24.56 फीसदी था, अब 24.62 फीसदी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वनों की गुणवत्ता में काफी बदलाव आया है। ‘बहुत घने जंगल’ में कमी और ‘मध्यम रूप से घने जंगल’ में वृद्धि हुई है। इसके साथ, मौजूदा वनों की कार्बन अवशोषित करने वाली क्षमताओं (कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन कैपेबिलिटीज) के बारे में गंभीर चिंताएं बढ़ रही हैं।
पिछले दो दशकों में, आईएसएफआर ने साल-दर-साल वनों और वृक्षों के आवरण में वृद्धि दिखाई है, लेकिन इस आंकड़े पर न केवल वैश्विक बल्कि घरेलू स्तर पर भी संदेह है।
संयुक्त राष्ट्र के एक विशेषज्ञ पैनल ने फॉरेस्ट रेफरेंस लेवल इन 2018 (वनों की कटाई और वनों के खराब स्थिति में होते जाने के कारण उत्सर्जन का अनुमान) के लिए वन आवरण पर आंकड़े साझा करते समय भारत की कार्यप्रणाली को लेकर पारदर्शिता और स्पष्टता की कमी पर सवाल उठाया। भारत ने बाद में आंकड़ों में संशोधन किया, लेकिन संदेह बना रहा। एक एनजीओ नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने आईएसएफआर डाटा और इससे निकाले गए निष्कर्षों में विसंगतियों की ओर इशारा किया है।
लैंड कन्फ्लिक्ट वॉच के एक अन्य विशेषज्ञ, पृथ्वीराज रूपावत ने आईएसएफआर 2021 के अपने विश्लेषण में कहा: “2019 और 2021 के बीच, भारत के जंगलों की गुणवत्ता 15,183 वर्ग किलोमीटर में खराब हो गई क्योंकि जंगलों को या तो काट दिया गया या खत्म कर दिया गया।” चाय के बागानों, नारियल के बागानों, निर्मित क्षेत्रों और यहां तक कि रेगिस्तानी झाड़ियों को जंगलों के रूप में गिनने के लिए रिपोर्ट की आलोचना की गई है। इसलिए भारत का वास्तविक वन आवरण 24 फीसदी से काफी कम हो सकता है। यह स्थिति कार्बन सिंक के लक्ष्य को और दूर धकेल रहा है।
जंगलों पर दबाव
भारत के वन क्षेत्र को होने वाले नुकसान के पीछे प्रमुख वजहों में शहरीकरण, कमोडिटी जरूरतों की वजह से होने वाली वनों की कटाई, जंगलों की आग और बुनियादी ढांचा परियोजनाएं इत्यादि हैं। सरकार ने 2015 के बाद से अन्य उद्देश्यों के लिए वनों को डायवर्ट करने के 1 फीसदी से भी कम प्रस्तावों को ही खारिज किया है। इसी दौरान 2020 में, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ ने सड़कों और रेलवे से जुड़ी 48 परियोजनाओं के लिए पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (इकोलॉजिकली सेंसिटिव एरिया) या संरक्षित भूमि (प्रोटेक्टेड लैंड) के लगभग 1,792 हेक्टेयर के डायवर्जन को अधिकृत किया।
पेड़ों और वन आवरण का नुकसान न केवल भारत के जलवायु सिंक लक्ष्यों को पीछे की ओर ले जाता है बल्कि इससे वातावरण में उत्सर्जन की मात्रा भी बढ़ती है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच का अनुमान है कि भारत में वृक्षों के आवरण के नुकसान ने 2001 और 2021 के बीच लगभग 1.01 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैसों को रिलीज किया है।
खराब हालात वाले जंगलों, मैंग्रोव और पीटलैंड पर एक नजर
कार्बन सिंक के लक्ष्य को प्राप्त करने की रणनीतियों को लेकर भारतीय वन सर्वेक्षण की 2019 की तकनीकी रिपोर्ट, पिछले 15-20 वर्षों के दौरान खराब हालात में पहुंच चुके जंगलों को दुरुस्त करने की वकालत करती है। दरअसल, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिहाज से इस तरह के जंगलों में बहुत बड़ी क्षमता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2030 तक हासिल किए जाने वाले कार्बन सिंक के लक्ष्य का 60 फीसदी तो केवल खराब हालात वाले और खुले जंगलों को दुरुस्त करके पाया जा सकता है।
क्या आप जानते हैं …
जंगल भारत की 80 फीसदी स्थलीय जैव विविधता को सहयोग करते हैं। इसके अलावा 30 करोड़ से ज्यादा लोग अपने अस्तित्व के लिए वनों पर निर्भर हैं। जंगलों के अलावा, मैंग्रोव और पीटलैंड महत्वपूर्ण कार्बन सिंक हैं। मैंग्रोव को आईएसएफआर में अन्य वनों से अलग माना जाता है। इसलिए इनको फॉरेस्ट कवर के आंकड़ों में शामिल नहीं किया जाता है। ये वर्षावनों की तुलना में प्रति हेक्टेयर अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। ये बाढ़, चक्रवात, कटाव और समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसी आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए भी जरूरी हैं। आईएसएफआर 2021 में कहा गया है कि 2019 के बाद से मैंग्रोव कवर में मामूली शुद्ध वृद्धि दर्ज की है। भारत के मैंग्रोव को फॉरेस्ट क्लीयरेंस से लेकर समुद्र के बढ़ते स्तर तक कई तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है।
पीटलैंड प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले सबसे बड़े कार्बन स्टोर हैं, जो दुनिया भर में अन्य सभी प्रकार की वनस्पतियों की तुलना में अधिक कार्बन को अवशोषित कर लेते हैं। फिर भी, भारत में पीटलैंड कवर पर आंकड़े नाममात्र हैं क्योंकि उन्हें व्यवस्थित रूप से गिना नहीं जाता है। यह स्थिति एक जोखिम पैदा करती है जिससे उनकी कार्बन सिंक क्षमता की अनदेखी हो सकती है। संख्या जो भी हो, पीटलैंड की रक्षा से भारत को अपने नेट जीरो के लक्ष्य को पूरा करने में मदद मिलेगी।
आगे का रास्ता
जलवायु अल्पीकरण (क्लाइमेट मिटिगैशन) से जुड़ी रणनीतियां केवल प्रौद्योगिकी पर आधारित नहीं होनी चाहिए। समुदाय और इकोसिस्टम, क्लाइमेट मिटिगैशन के केंद्र में हैं और निष्क्रियता के परिणाम भुगतते हैं।
जंगल, मैंग्रोव, पीटलैंड, और उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली इकोसिस्टम से जुड़ी सेवाएं, भारत को अपने जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक दीर्घकालिक, व्यवहार्य और किफायती (कॉस्ट-इफेक्टिव) तरीका प्रदान करती हैं। साथ ही, इससे जैव विविधता, स्थानीय समुदायों व अर्थव्यवस्था को भी फायदा पहुंचता है।
क्लाइमेट टार्गेट्स और क्लाइमेट जस्टिस प्राप्त करने के लिए भारत की नीतियों को तालमेल बिठाने की आवश्यकता है। यह बात इन नीतियों को लागू करने के लिहाज से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह समय भारत के लिए अपने कार्बन सिंक के लक्ष्य के दायरे को बड़ा बनाने का है ताकि मैंग्रोव और पीटलैंड को शामिल किया जा सके। साथ ही, अपने कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन (कार्बन अवशोषित करने की क्षमता) टार्गेट को बढ़ाने का भी यही समय है।
इस दिशा में भारत कितना मजबूती से कदम उठाता है या निष्क्रियता दिखाता है-विशेष रूप से साझा और ट्रांसबांउड्री इकोसिस्टम्स के मामले में- इसका बाकी दक्षिण एशिया पर एक अहम प्रभाव पड़ेगा। भारत को तय करना ही होगा कि वह किस तरह से आगे बढ़ना चाहता है।
साभारः thethirdpol.net